Thursday, December 21, 2023

समुद्र तट और मैं...


जगन्नाथ पुरी के समुद्र तट पर बैठा, मैं तटीय अनुभूतियों से मानों, अन्यमनस्क सा हो गया, मैंने देखा कि मानो सागर की लहरों के थपेडे, मुझे मानिनी की तरह धकेल देते हैं, और फिर उत्कण्ठित सी वही लहरें, मानो मुझे आत्मसात् करने को तीव्रगति से लौटते हुए, बाहें फैलाए अपना बना लेतीं हैं, किन्तु ये क्या मैं तो उसके फेनाञ्चल को भी, अपना न बना पाया ... | लहरें फिर आईं और फिर से मुझे ...... ओह..... तो ये अटखेलियाँ हैं, इन लहरों की ? जो मुझे उत्सुक कर रही हैं | झमाझम बरसता ये मेघ इतनी गर्जना क्यों कर रहा है ? लगता है इन लहरों को पाने हेतु साभिलाष यह समुद्र, गर्जना को चुनौती दे रहा है, भले ही यह मेघ पुष्करावर्तक खानदान से हो, पर यह, ये नहीं जानता कि लहरें भी तो सागर का अभिन्न अंग ही हैं, ये कभी सागर से अलग नहीं हो सकतीं, तथापि गणिकाओं की भांति यह केवल सहृदयों के साथ कौतुक मात्र करती हैं | और ये क्या......???? मेघ ने धारापात शुरु कर दिया, कहीं मेघ को इस बात का संज्ञान तो नहीं हो गया, कि ये लहरें मेरे साथ कौतुक कर रहीं हैं और इस कारण से उसकी अश्रुधारा फूट पड़ी हो ? अरे नहीं, विरहवेदना से व्यथित लोग जानते हैं कि अश्रुओं का आस्वाद लवणमय होता है..... लावण्यमय नहीं | ओहह... लगता है लहरों के कपट से क्रुद्ध यह मेघ, इन लहरों को नष्ट करने की नाकाम कोशिश में लगा हुआ है, किन्तु ये जानता ही नहीं कि इन धाराओं से मेघ स्वयं इन लहरों को और मजबूती प्रदान कर रहा है | परस्पर एक दूसरे के हेतुभूत इन मेघों और लहरों को सागराश्रित रहना चाहिए, किन्तु प्रकृति का क्या करें जो बदले नहीं बदलती ? और इन सब के बीच सागर... जो कि अथाह जलराशि से युक्त है, गम्भीर... एक दम गम्भीर... किसी महापुरुष की तरह शान्तचित्त.... बस इन दोनों की क्रिया प्रतिक्रियाओं को दूर से देखता हुआ, मानो मन्द मन्द मुस्कुरा रहा हो | बहुत बडे सामाज्य के सिमान्त प्रदेशों पर तैनात अदने से हवलदारों में जो अभिमानाधिक्य व चञ्चलता होती है, क्या वही चपलता इन लहरों में नहीं है ? बिल्कुल वही है | कहाँ तो इतने बडे जलसमुदाय से युक्त इस समुद्र का यह अनुकरणीय गाम्भीर्य और कहाँ क्षणभन्गुर इन लहरों का अस्तित्व ? तथापि "क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः" इसलिए इन लहरों की ये चञ्चल शोख़ अदायें मुझे बडी प्यारी लग रही हैं,  दूर से आती इन बडी बडी लहरों को देख, मन में आशाओं के लड्डू फूटने लगते हैं, कि ये वाली लहर तो बहुत ही द्रुतगति से मेरी ओर चली आ रही है, लगता है इस बार का तरंगालिंगन और ज्यादा प्रगाढ होगा और लहर की गति तीव्र, और तीव्र हो जाती और तभी अत्युत्साह में वह मुँह के बल गिर कर फिर समुद्र की होकर रह जाती है,  हा धिक्... मेरा भी अभिलाष खण्डित हो गया | सही कहा है किसी ने "अत्युत्साहः भयंकरः" किन्तु ये भी तो कहा गया है "आशा बलवती राजन् ..." | वस्तुतः सौतिया डाह जो है न, वो तो कबाडा कर के ही, दम लेता है, मन्द गति से आती हुई लहर जब देखती है कि मैं अन्य लहर के साथ समासक्त हूँ, तो उसका उत्साह वहीं जवाब दे जाता है और बाकी का उत्साह लौटती हुई वह लहर नष्ट कर देती है | लगता है जैसे मुझ तृषार्त को भ्रमित करने के लिए ये लहरें, नई नई अदाओं, भंगिमाओं, मुद्राओं व नये नये स्वरूपों के साथ आती हैं, और मेरी आशाओं अभिलाषाओं को जगाती बुझाती रहती हैं | सागरनयन इन लहरों का ये भ्रूविलास ..... ओहहह.... अप्रतिम है | धैर्य.. अत्यन्त अपेक्षित है पुरुष के लिए, क्योंकि मेरे मित्र ! जो लहर जितनी तेजी से आती है तुम्हारे पास, उससे भी अधिक तेजी से वह तुमसे दूर हो जाती है, इसलिए लहरों को झपटने की कोशिश मत करो, वह खुद आयेगी तुम्हारे पास, और अगर वह तुम तक नहीं पहुँच पायी... तो समझना कि उसमें सामर्थ्य ही नहीं था, तुम तक पहुचने का | अक्सर झपटने में लहरें टूट जाती हैं या नष्ट हो जाती है, और प्यार किसी को तोडता नहीं कभी, हर लहर को बांध पाने या अपना बना लेने की कोशिश, अबोध और नासमझ लोग करते हैं | अरे किसी एक लहर ने छूकर तुम्हारे अन्तर्मन को आप्लावित कर दिया, तुम्हें रसान्वित कर दिया, क्या इतना भी पर्याप्त नहीं जीवन के लिए ? क्या खूब कहा है " चाँद मिलता नहीं सबको सन्सार में, है दीया ही बहुत रौशनी के लिए ....." और अगर लगता है कि ये सभी लहरें सिर्फ और सिर्फ तुम्हे पाना चाहती हैं, या तुम्हे हीं निमन्त्रित कर रहीं हैं, तो मेरे मित्र ! इसमें दोष सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा है, क्योंकि लहरें चञ्चल होने के बावजूद मर्यादित होती हैं, जो कि समुद्र-गृह को लौट जाती हैं, किन्तु हम पुरुष अमर्यादित हो, हर लहर को पाने की कामना से, अमर्यादित आचरण करते रहते हैं, अपनी स्थिति और स्थान को हमेशा स्पष्ट रखा जाना चाहिए, लहरों के समक्ष | प्रायः वह अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करतीं और प्रेमाभिव्यक्ति भी उचित स्थान पर ही करती हैं और यही होना भी चाहिए, क्योंकि अस्थानकृत प्रेमनिवेदन अनुपयुज्य हो जाता है, सर्वदा के लिए | मेघ के द्वारा, लहरों के लिए प्रदत्त मीठा पानी, अन्ततः सामुद्रिक होकर अपेय ही हो जाता है | 
लहरों से नजर हटी तो देखा, कि पूर्व में उठ कर गिरता हुआ, उत्तर तथा दक्षिण में वक्र होता हुआ सा समुद्र मानों जन्मकुण्डली के सूर्य को मजबूती प्रदान करता हुआ अन्तर्मन को गर्व, गाम्भीर्य व गौरव से भर रहा हो | मन्द गति से अभिमान की तरह उपर बढते, किन्तु साथ ही छोटे होते और अन्त में समुद्र में ही कहीं अवनति प्राप्त करते, पानी के जहाज कितना कुछ सिखा जाते हैं हमें जिन्दगी के लिए, बहुत ही रमणीय और दार्शनिक दृश्यों से युक्त इस समुद्र के विषय में आज बस इतना ही.... अगली बार नूतन चिन्तन व दर्शन के साथ फिर आपसे मुख़ातिब होउंगा | तब तक के लिए...... जय जगन्नाथ

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