Thursday, December 21, 2023

समुद्र तट और मैं...


जगन्नाथ पुरी के समुद्र तट पर बैठा, मैं तटीय अनुभूतियों से मानों, अन्यमनस्क सा हो गया, मैंने देखा कि मानो सागर की लहरों के थपेडे, मुझे मानिनी की तरह धकेल देते हैं, और फिर उत्कण्ठित सी वही लहरें, मानो मुझे आत्मसात् करने को तीव्रगति से लौटते हुए, बाहें फैलाए अपना बना लेतीं हैं, किन्तु ये क्या मैं तो उसके फेनाञ्चल को भी, अपना न बना पाया ... | लहरें फिर आईं और फिर से मुझे ...... ओह..... तो ये अटखेलियाँ हैं, इन लहरों की ? जो मुझे उत्सुक कर रही हैं | झमाझम बरसता ये मेघ इतनी गर्जना क्यों कर रहा है ? लगता है इन लहरों को पाने हेतु साभिलाष यह समुद्र, गर्जना को चुनौती दे रहा है, भले ही यह मेघ पुष्करावर्तक खानदान से हो, पर यह, ये नहीं जानता कि लहरें भी तो सागर का अभिन्न अंग ही हैं, ये कभी सागर से अलग नहीं हो सकतीं, तथापि गणिकाओं की भांति यह केवल सहृदयों के साथ कौतुक मात्र करती हैं | और ये क्या......???? मेघ ने धारापात शुरु कर दिया, कहीं मेघ को इस बात का संज्ञान तो नहीं हो गया, कि ये लहरें मेरे साथ कौतुक कर रहीं हैं और इस कारण से उसकी अश्रुधारा फूट पड़ी हो ? अरे नहीं, विरहवेदना से व्यथित लोग जानते हैं कि अश्रुओं का आस्वाद लवणमय होता है..... लावण्यमय नहीं | ओहह... लगता है लहरों के कपट से क्रुद्ध यह मेघ, इन लहरों को नष्ट करने की नाकाम कोशिश में लगा हुआ है, किन्तु ये जानता ही नहीं कि इन धाराओं से मेघ स्वयं इन लहरों को और मजबूती प्रदान कर रहा है | परस्पर एक दूसरे के हेतुभूत इन मेघों और लहरों को सागराश्रित रहना चाहिए, किन्तु प्रकृति का क्या करें जो बदले नहीं बदलती ? और इन सब के बीच सागर... जो कि अथाह जलराशि से युक्त है, गम्भीर... एक दम गम्भीर... किसी महापुरुष की तरह शान्तचित्त.... बस इन दोनों की क्रिया प्रतिक्रियाओं को दूर से देखता हुआ, मानो मन्द मन्द मुस्कुरा रहा हो | बहुत बडे सामाज्य के सिमान्त प्रदेशों पर तैनात अदने से हवलदारों में जो अभिमानाधिक्य व चञ्चलता होती है, क्या वही चपलता इन लहरों में नहीं है ? बिल्कुल वही है | कहाँ तो इतने बडे जलसमुदाय से युक्त इस समुद्र का यह अनुकरणीय गाम्भीर्य और कहाँ क्षणभन्गुर इन लहरों का अस्तित्व ? तथापि "क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः" इसलिए इन लहरों की ये चञ्चल शोख़ अदायें मुझे बडी प्यारी लग रही हैं,  दूर से आती इन बडी बडी लहरों को देख, मन में आशाओं के लड्डू फूटने लगते हैं, कि ये वाली लहर तो बहुत ही द्रुतगति से मेरी ओर चली आ रही है, लगता है इस बार का तरंगालिंगन और ज्यादा प्रगाढ होगा और लहर की गति तीव्र, और तीव्र हो जाती और तभी अत्युत्साह में वह मुँह के बल गिर कर फिर समुद्र की होकर रह जाती है,  हा धिक्... मेरा भी अभिलाष खण्डित हो गया | सही कहा है किसी ने "अत्युत्साहः भयंकरः" किन्तु ये भी तो कहा गया है "आशा बलवती राजन् ..." | वस्तुतः सौतिया डाह जो है न, वो तो कबाडा कर के ही, दम लेता है, मन्द गति से आती हुई लहर जब देखती है कि मैं अन्य लहर के साथ समासक्त हूँ, तो उसका उत्साह वहीं जवाब दे जाता है और बाकी का उत्साह लौटती हुई वह लहर नष्ट कर देती है | लगता है जैसे मुझ तृषार्त को भ्रमित करने के लिए ये लहरें, नई नई अदाओं, भंगिमाओं, मुद्राओं व नये नये स्वरूपों के साथ आती हैं, और मेरी आशाओं अभिलाषाओं को जगाती बुझाती रहती हैं | सागरनयन इन लहरों का ये भ्रूविलास ..... ओहहह.... अप्रतिम है | धैर्य.. अत्यन्त अपेक्षित है पुरुष के लिए, क्योंकि मेरे मित्र ! जो लहर जितनी तेजी से आती है तुम्हारे पास, उससे भी अधिक तेजी से वह तुमसे दूर हो जाती है, इसलिए लहरों को झपटने की कोशिश मत करो, वह खुद आयेगी तुम्हारे पास, और अगर वह तुम तक नहीं पहुँच पायी... तो समझना कि उसमें सामर्थ्य ही नहीं था, तुम तक पहुचने का | अक्सर झपटने में लहरें टूट जाती हैं या नष्ट हो जाती है, और प्यार किसी को तोडता नहीं कभी, हर लहर को बांध पाने या अपना बना लेने की कोशिश, अबोध और नासमझ लोग करते हैं | अरे किसी एक लहर ने छूकर तुम्हारे अन्तर्मन को आप्लावित कर दिया, तुम्हें रसान्वित कर दिया, क्या इतना भी पर्याप्त नहीं जीवन के लिए ? क्या खूब कहा है " चाँद मिलता नहीं सबको सन्सार में, है दीया ही बहुत रौशनी के लिए ....." और अगर लगता है कि ये सभी लहरें सिर्फ और सिर्फ तुम्हे पाना चाहती हैं, या तुम्हे हीं निमन्त्रित कर रहीं हैं, तो मेरे मित्र ! इसमें दोष सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा है, क्योंकि लहरें चञ्चल होने के बावजूद मर्यादित होती हैं, जो कि समुद्र-गृह को लौट जाती हैं, किन्तु हम पुरुष अमर्यादित हो, हर लहर को पाने की कामना से, अमर्यादित आचरण करते रहते हैं, अपनी स्थिति और स्थान को हमेशा स्पष्ट रखा जाना चाहिए, लहरों के समक्ष | प्रायः वह अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करतीं और प्रेमाभिव्यक्ति भी उचित स्थान पर ही करती हैं और यही होना भी चाहिए, क्योंकि अस्थानकृत प्रेमनिवेदन अनुपयुज्य हो जाता है, सर्वदा के लिए | मेघ के द्वारा, लहरों के लिए प्रदत्त मीठा पानी, अन्ततः सामुद्रिक होकर अपेय ही हो जाता है | 
लहरों से नजर हटी तो देखा, कि पूर्व में उठ कर गिरता हुआ, उत्तर तथा दक्षिण में वक्र होता हुआ सा समुद्र मानों जन्मकुण्डली के सूर्य को मजबूती प्रदान करता हुआ अन्तर्मन को गर्व, गाम्भीर्य व गौरव से भर रहा हो | मन्द गति से अभिमान की तरह उपर बढते, किन्तु साथ ही छोटे होते और अन्त में समुद्र में ही कहीं अवनति प्राप्त करते, पानी के जहाज कितना कुछ सिखा जाते हैं हमें जिन्दगी के लिए, बहुत ही रमणीय और दार्शनिक दृश्यों से युक्त इस समुद्र के विषय में आज बस इतना ही.... अगली बार नूतन चिन्तन व दर्शन के साथ फिर आपसे मुख़ातिब होउंगा | तब तक के लिए...... जय जगन्नाथ

Friday, May 5, 2023

दक्षिणा का महत्व

दक्षिणा का महत्व
ब्राह्मणों की दक्षिणा, हवन की पूर्णाहूति करने के एक मुहूर्त (24 मिनट) के अन्दर दे देनी चाहिये , अन्यथा मुहूर्त (24 मिनट) बीतने पर उस दक्षिणा की देयता 100 गुना बढ जाती है इसी तरह तीन रात बीतने पर एक हजार गुना देयता, सप्ताह बीतने के बाद दो हजार गुना देयता, महीना बीतने के बाद एक लाख गुना देयता तथा संवत्सर बीतने पर तीन करोड गुना दक्षिणा यजमान को देनी होती है । यदि यजमान संकल्पादि से वरण किये हुए ब्राह्मण को दक्षिणा नहीं दे तो उसके बाद उस यजमान का कर्म निष्फल हो जाता है तथा उसे ब्रह्महत्या का महापाप लगता है क्योंकि शास्त्रों लिखा गया है "वृत्तिच्छेदो हि तद्वध:" अर्थात् किसी की वृत्ति (नौकरी/ मेहनताना/ दक्षिणा / पारिश्रमिक/) को मारना उसके वध/ हत्या के समान होता है | अतः उसके हाथ से किये जाने वाला हव्य (हवन) - कव्य (बलिदान) देवता और उसके पितर कभी प्राप्त नहीं करते हैं । इसलिए  ब्राह्मणों की दक्षिणा जितनी जल्दी हो देनी चाहिये | शास्त्रों में जिन पांच महापापों का उल्लेख किया गया है वे हैं - 
ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः | 
महान्ति पातकान्याहुः संसर्गश्चापि तैः सह ||

इसमें जो पांचवां महापाप है वह पूर्व उल्लिखित चार महापापों में सहयोग करने वाले, उनके लिए प्रेरित करने वाले, उनका समर्थन करने वाले, उन पापों में साथ देनें वाले को भी समान रूप से प्राप्त होता है | 

शास्त्रों में इसका सविस्तार वर्णन मिलता है -
मुहूर्ते समतीते तु, भवेच्छतगुणा च सा । त्रिरात्रे तद्दशगुणा, सप्ताहे द्विगुणा मता ।।
मासे लक्षगुणा प्रोक्ता, ब्राह्मणानां च वर्धते । संवत्सर-व्यतीते तु , सा त्रिकोटिगुणा भवेत् ।।
कर्म तद्यजमानानां, सर्वञ्च निष्फलं भवेत् । सब्रह्म-स्वापहारी च, न कर्मार्हो शुचिर्नर:।।

इसलिए चाणक्य ने कहा "नास्ति यज्ञसमो रिपु:" अर्थात् यज्ञादि कर्म शास्त्र विधि से सम्पन्न हो तब तो महान् लाभ को देने वाला है अन्यथा यज्ञ से बड़ा कोई शत्रु नहीं है ।

गीता में स्वयं भगवान् ने कहा 

विधिहीनमसृष्टान्नं, मन्त्रहीनमदक्षिणम् । श्रद्धाविरहितं यज्ञं , तामसं परिचक्षते ।। श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 17 श्लोक 13

अर्थात् शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ৷৷17.13॥

Means that sacrifice performed in defiance of scriptural injunctions, in which no spiritual food is distributed, no hymns are chanted and no remunerations are made to the priests, and which is faithless-that sacrifice is of the nature of ignorance.

यह बड़ा विचारणीय विषय है कि लोग अपने शादी विवाह आदि उत्सव महोत्सवों में मनोरंजन / न्यौछावर के नाम पर लाखों रुपये लुटा देतें हैं किन्तु आधुनिकता की दौड़ के विपरीत वेदों शास्त्रों का अध्ययन करने वाले उस तपस्वी ब्राह्मण को दक्षिणा देते समय Bargaining करने लगते हैं अथवा दक्षिणा देने में विलम्ब करते हैं अथवा कम दक्षिणा देते हैं और तो और कुछ लोग उन तपस्वी ब्राह्मणों की दक्षिणा को पचा जाते हैं, तथा वही लोग किसी सभा में भाषण करते हुए आपको दिखाई दे जाते हैं कि आज समाज में कितनी विकृति आ गई है | वस्तुत: उन लोगों को पता ही नहीं होता कि यज्ञानुष्ठान करने वाले ब्राह्मणों के लिए शास्त्रों में क्या लिखा है | शास्त्रों में यज्ञानुष्ठान करने वाले ब्राह्मणों को "देवता" की उपाधि प्रदान की गई है -
देवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता: || ते मन्त्रा: ब्राह्मणाधीना: तस्मात् ब्राह्मण-देवता ||

अर्थात् यह सारा संसार देवताओं के अधीन है, सभी देवता मन्त्रों के अधीन है और वे सारे मन्त्र ह्रस्व-दीर्घ-स्वरितादि स्वरों का ज्ञान रखने वाले ब्राह्मणों के अधीन होता है, अतः ब्राह्मण को देवता कहा जाता है |

Sunday, August 16, 2020

संस्कृत का आधुनिक प्रचार कैसे हो

 मित्रों ! आज यह अत्यन्त विचारणीय विषय हो गया है कि हम संस्कृत क्षेत्र के लोग संगठित कब होंगे ? यदि जल्दी नहीं हुए तो कोई भी ऐरा-गैरा उठाई-गिरा आकर बोल देगा कि संस्कृत Useless है बकवास है, और उसके उपरान्त हम में से कई, कई तरह की बातें करेंगे |

मित्रों ! हमारी महत्ता तो तब हो, जब कोई कुछ बुरा बोलने की हिम्मत ही न कर सके संस्कृत के बारे में... और इसके लिए हमें संगठित होना होगा, योजनाएँ बनानी होंगी | क्या आपको पता है 14 से 25 आयु वर्ग के युवाओं की संख्या कितनी है भारत में ? लगभग 27 करोड़.... जी ... और उस युवा वर्ग को दिशा दे रहे हैं तथाकथित उपदेशक/ Motivational Speakers ... वे लोग कच्ची मिट्टी के उन युवाओं को जो चाहें बना दें... और ऐसा क्यों होता है क्योंकि संस्कृत वाला कोई छात्रों को समसामयिक ज्ञान समसामयिक उद्धरणों से युक्त उपदेश नहीं देता ... अथवा संस्कृत के किसी युवा में ऐसा Confidence/आत्मविश्वास ही नहीं कि वो अपने आप को Star/Celebrity बना लेवे... और किसी इक्के दुक्के ने ऐसा प्रयास भी करना चाहा तो बस... उसकी टांग खीचकर नीचे...

संघे शक्तिः कलौ युगे ... ये हमारे संस्कृत का वाक्य है किन्तु इसको Implement किया अन्य लोगों ने... आज जो कोई भी प्रसिद्ध होकर स्थिर है या Market में बना हुआ है, निश्चित रूप से उसके साथ एक संगठन है एक समूह है... और मैंने इसे मुम्बई में बहुत करीब से महसूस किया... क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि Facebook Twitter Instagram पर Blue Mark वाले Celebrity, Pure संस्कृत Field के हों... Sanskrit Actor.. Sanskrit Actress... Sanskrit Singer... Sanskrit Musician... Sanskrit Influencer... Sanskrit Youtuber Sanskrit Director... Sanskrit Politician... Sanskrit Author... Sanskrit Educationist... Sanskrit Producer... Sanskrit Filmmaker... Sanskrit Cricketer... Sanskrit Businessman... Sanskrit Composer... Sanskrit Lyricist... Sanskrit Engineer... Sanskrit Doctor... Sanskrit Poet... Sanskrit Scientist... Sanskrit Player... Sanskrit Chef... Sanskrit Comedian... Sanskrit IAS.. Sanskrit IPS... Sanskrit Beurocrat... और भी न जाने कितने प्रकार के Celebrities होते हैं, और यदि उस ऊँचाई से संस्कृत का पक्ष रखा जाएगा तो समझ लिजिए कि जन जन तक संस्कृत सरलता से पहुँच जाएगी... 

आज सोशल मीडिया इतना सही और सटीक माध्यम है अपनी बात पहुँचाने के लिए कि ऐसा और कोई सशक्त माध्यम नहीं.... और 27 करोड़ के उस युवा वर्ग को यदि संस्कृत के प्रति आकर्षित करना है तो हमें संघटित होकर इसका उपयोग एवं प्रयोग करना होगा, आपको बस इतना ही करना है कि जो संस्कृत में तथा उपरोक्त आधुनिक विद्या में दक्ष हो उसे प्रमोट करना है, इसमें ध्यान रखने वाली बात यह होगी कि हम मिलकर ऐसे अधिटतम पाँच लोगों का चुनाव करें जो इस संस्कृत फील्ड तथा उपरोक्त एक आधुनिक विद्या में दक्ष हो उसे प्रमोट करें... प्रमोशन कैसे करना है वह सब परामर्श के बाद विधिवत सूचित किया जाएगा |

मित्रों ! संगठित होने के लिए मैनेजमेंट अत्यन्त आवश्यक होता है... यदि फेसबुक की ही बात की जाय तो यहाँ कई Facebook Group काम कर रहे हैं संस्कृत के लिए... सभी का उद्देश्य और लक्ष्य समान है.. तथापि एक ही सामग्री को कई जगह बार बार देख कर पिष्टपेशणता हो जाती है.. जिस तरह से बड़े बड़े संघटनों में संस्थाओं में अलग अलग कार्य के लिए अलग अलग विंग/विभाग होते हैं, क्या यहाँ भी वैसा ही विभागीकरण क्यों नहीं कर दिया जाता, जैसे कि सम्भाषण संस्कृत के लिए फलां ग्रुप सुनिश्चित... संस्कृत कविता के लिए फलां ग्रुप सुनिश्चित आदि... और जो व्यक्ति तत्सम्बद्ध जानकारी लेना या देना चाहे, वह उसी ग्रुप में.. साथ ही प्रत्येक सुनिश्चित ग्रुप को सभी संस्कृतानुरागी Follow करेंगे... इससे होगा यह कि मात्र 20/25 ग्रुप को Follow करने मात्र से आपके पास संस्कृत की तमाम जानकारी उपलब्ध हो जाएगी... संस्कृत समाचार जानने का मन हुआ उस ग्रुप में चले गये... संस्कृत गीत सुनने का मन हुआ उस ग्रुप में चले गये... बहुत ही सुन्दर, सुव्यस्थित, सुसंगठित, समग्रतापूर्ण, सुगम, और सहज प्रक्रम होगा यह |

मित्रों ! जो लोग संस्कृत की बुराई करते हैं हम उनका मुँह केवल एक ही प्रकार से बन्द कर सकते हैं... और वो है संस्कृत वाङ्मय की समग्र वैज्ञानिकता को प्रदर्शित करना... और ये होगा कैसे ... एक उपाय है.. हमें एक Application का निर्माण करना होगा.. संस्कृत वाङ्मय एप्लिकेशन... इसमें Informative/सूचनात्मक रूप से समग्र संस्कृत वाङ्मय के मूल / Routes का निरन्तरता/क्रमिकता/सातत्यता के साथ सूचनात्मक वर्णन होगा .... वेदों से लेते हुए आज तक के जितने वाङ्मय प्रभेद हैं, उन सबकी क्रमिक Information उस एप में हो तथा उसमें निहित Search Option में यदि कोई आधुनिक छात्र Plastic Surgery Search करे तो उसे उन तमाम वेदों/शास्त्रों/ग्रन्थों/अध्यायों/श्लोकों का Reference मिल जाए कि आपको यहाँ यहाँ यह विषय मिलेगा... और सामान्यतया उस एप्लिकेशन को पूरा देख लेने या चला लेने के उपरान्त पूरा का पूरा संस्कृत वाङ्मय उस छात्र के दिमाग में घूमने लगे... केवल इतना ही नहीं इससे प्रत्येक शास्त्र का बेसिक ज्ञान छात्र को या अन्य सामाजिकों को स्पष्ट हो जाएगा और उसके उपरान्त एक सामान्य मानवी भी विधर्मी लोगों को सतर्क और सप्रमाण उत्तर देने में सक्षम हो पाएगा...

अन्त में मैं संस्कृत युवाओं से विशेष रूप से कहना चाहूँगा कि संगठित हो जाईये, तैयार हो जाईये, आने वाला समय आपका ही है..... जयतु संस्कृतं .... जयतु भारतम् ....

Sunday, July 5, 2020

तस्मै श्रीगुरवे नमः

गुरु के बारे में कहा जाता है "गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः | गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः || ऐसा इसलिए क्योंकि गुरु निर्माता होता है, और ये निर्मिति उपादान कारण या निमित्त कारण से नहीं अपितु सहज प्रवृत्ति से होती है | गुरु में वह गुरुता Neutral होती है | आज जब विद्यालय व्यवसाय का केन्द्र या धन खसोटने के केन्द्र बन गये हैं, तो वैसी गुरुता कम ही दिखाई पड़ती है | गुरु के मन में एक अजीब तरह का उतावलापन होता है कि मैं अपने शिष्य को क्या क्या दे दूँ |

ब्रह्मा के समान गुरु, सुनिश्चित वृत्त में विद्यमान मिट्टी के पिण्ड को थपथपाता हुआ एक अनुकूल आकार/Shape देता है, अन्तःवृत्त और बाह्यवृत्त दोनों को | फिर उस जातित्व आकार को तराशता है, उनकी बारीकियों पर काम करता है, उसके हर एक पक्ष को Different Angles से देखता हुआ, उसे परिदृश्य (सभी ओर से दर्शनीय) बनाता है | ऐसा नहीं है कि वह पहले उच्चारण-आचारादि बाह्यवृत्त का समायोजन कर लेने के पश्चात् सहृदयतादि अन्तःशीलों का परिवर्धन करता है अपितु गुरु तो कुम्भकार के समान अन्तःबाह्य उपचारों को समान रूप से प्रतिपादित करता है | निष्कर्षतः "संस्कारसम्पन्न शक्तिरूप बीज जब प्रबल श्रद्धारूप गर्भस्थिति को प्राप्त करता है और शरीरी गुरु के वात्सल्यरस से पुनःपुनः परिपुष्ट होता है, तब जाकर कहीं शिष्यरूपी शिशु विद्यालोक में जन्म लेता है |" शायद इसीलिए गुरु को पिता की संज्ञा दी गई है | 

गुरु को विष्णु इसलिए कहा जाता है क्योंकि गुरु रक्षक होता है उस विद्यापुञ्ज का | जिस तरह शरीर की रक्षा ही कारण है शरीरी (आत्मा) की रक्षा हेतु, ठीक उसी तरह शास्त्रादि स्थूलता ही उस पराविद्या के प्रति कारण हैं और गुरु शास्त्रादि का संरक्षण कराता हुआ, आत्मतत्त्व की रक्षा करता है |

संहारकारक महेश्वरस्वरूप गुरु उन तमाम अज्ञानात्मक अंधकारों को वैसे ही पूर्णतः हर लेता है दूर कर देता है जैसे परम प्रकाश, तमः का बोध ही नहीं होने देता | सूक्ष्मतया देखा जाय तो आब्रह्माण्ड में सर्वत्र अज्ञान रूपी अन्धकार विद्यमान है और उस अज्ञानान्धकार का एकमात्र समाधान प्रकाश है, ज्ञान है, सत्यबोध है | फिर भी लोग अज्ञान, मोह, भय, छल, छद्म आदि से युक्त किन्तु प्रकाश/विद्या से रहित, वस्तु/पदार्थों के संदर्शन हेतु छटपटाते रहते हैं | आज शिक्षा क्षेत्र में व्यवसायिकता के आधिक्य से शिक्षकों में गुरुत्व तथा छात्रों में शिष्यत्व कम ही देखने को मिल रहा है | शायद इसका कारण है शिक्षकों में "यस्यागमः केवलजीविकायै" और छात्रों में Teacher को Use & Throw रूपी एक Object समझना है | तथापि आप सभी को गुरुपूर्णिमा की अनन्त शुभकामनाएँ .....

Thursday, June 18, 2020

राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान और मैं !

अचानक राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान (जो अब केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय बन चुका है) का पुरातन से पुरातन संस्मरण हो चला, और अन्ततः स्मरणिका 18 वर्ष पूर्व के इन्दौर शहर, धरावरा धाम में हो रहे मानस सम्मेलन में पहुँच गई जहाँ नवोद्घाटित भोपाल परिसर के प्राचार्य प्रो.आजाद मिश्र जी संस्थान का महिमामण्डन कर रहे थे और शा.सं.महा. रामबाग, ओंकारद्विज सं. महा, विद्याधाम, श्री वेणुगोपाल पाठशाला आदि तमाम संस्कृत संस्थाओं के छात्रों को संस्थान के भोपालपरिसर में प्रवेश लेने हेतु आमन्त्रित एवं प्रोत्साहित कर रहे थे | प्रो.आजाद मिश्र जी का धाराप्रवाह संस्कृत सम्भाषण सुनकर हम गदगद हो गये | उस समय हम स्तरीय संस्कृत बोल और समझ लेते थे या यूँ कहूँ कि उस समय मैं निरूद्देश्य तथा भावादिरहित अनुष्टुप का संयोजन कर लिया करता था | हमने निश्चित किया कि अब हम संस्थान के भोपाल परिसर में ही पढेंगे और फिर नितिन शर्मा प्रतिनिधि के रूप में भोपाल भेजा गया, वो कुछ बुकलेट (Admission Form) ले आया | फिर कुछ ऐसा हुआ जो कि उल्लेखनीय नहीं है और हम पाठशाला छोडकर भोपाल नहीं जा सके | और बात आई गई हो गई |

इससे दो वर्ष पूर्व की बात करूँ तो हमारी पाठशाला के हम 11 छात्र अष्टोत्तरशत भागवत पारायण हेतु #कन्याकुमारी के पास #नांगुनेरी गये थे जहाँ हमारे संस्कृत सम्भाषण को सुनकर अन्य पण्डितजन बार बार यही पूछते कि क्या आप संस्कृतभारती से हैं ? तो हमारे अग्राध्यायी भैया लोग बताते कि नहीं हम सब को संस्कृत संभाषण हमारे गुरुजी
डॉसनन्दनकुमारत्रिपाठी जी ने सिखाया है किन्तु मन में एक प्रश्न घर कर गया कि ये संस्कृतभारती क्या है, जानना पड़ेगा और फिर कुछ ही दिनों के पश्चात् हमारी भेंट नीलाभ तिवारी सर से हुई और उन्होंने हमें इसके बारे में विस्तृत रूप से बताया तथा यह भी ज्ञात कराया कि आपके मन्दिर में आने वाले #प्रोमिथिलाप्रसादत्रिपाठी गुरुजी भी इसके वरिष्ठ अधिकारी हैं | और फिर कुछेक कार्यक्रमों में हम लोगों की सहभागिताएँ बढने लगीं |

एक दिन नीलाभ सर से आगे के भविष्य को लेकर बात होने लगी कि शास्त्री के बाद हमें क्या करना चाहिए ? आदि | तब उन्होंने संस्थान से #शिक्षाशास्त्री (B.Ed.) करने का परामर्श और मार्गदर्शन प्रदान किया | हम पाँच लोगों ने पूर्व शिक्षा शास्त्री परीक्षा का फार्म भरा और परीक्षाकेन्द्र मिला टी.टी. नगर भोपाल का एक विद्यालय जिसका नाम याद नहीं | दिन था 21 मई 2005 | परीक्षा समाप्त होते शाम हो गई और अब मुझे जाना था अपने गृहग्राम Dehri on Sone बिहार क्योंकि 23 मई को मेरी दीदी का तिलक था और अब तक मैंने कभी भी अकेले इतनी लम्बी रेलयात्रा नहीं की थी वो भी बिना रिजर्वेशन | फिर भी मैंने शक्ति एकत्रित कर चालू टिकट लिया और चढ गया जनरल बोगी में | सामान के नाम पर छोटी सी अटैची | इतनी भीड़ कि मुझे #इटारसी में उतरना पड़ा और मैं #मुम्बई से आने वाली खाली ट्रेन का इन्तजार करने लगा जब रात के दो बजे तक भी कोई ट्रेन खाली जैसी नहीं मिली तो एक भरी हुई सी ट्रेन में ही चढ गया क्योंकि मुझे किसी भी हालत में 23 तक घर पहुँचना था |

और फिर मैंने टुकड़ी-यात्रा का सहारा लिया इटारसी से #जबलपुर, जबलपुर से #कटनी, कटनी से #इलाहाबाद, ईलाहाबाद से #मुगलसराय, मुगलसराय से #डेहरीऑनसोन और फिर घर 23 मई को लगभग 10 बजे दिन में मैं अपने गाँव शंकरपुर, थाना नासरीगंज जिला #रोहतास (बिहार) पहुँचा |

पूर्वशिक्षाशास्त्री परीक्षा का परिणाम आया Nitesh का चयन हो गया भोपाल परिसर के लिए | चूँकि मेरा सामान्य ज्ञान माशाअल्लाह था अतः मुझे इसका थोड़ा सा पूर्वानुमान था किन्तु कुछ दिनों बाद मेरा और Satyesh का भी नंबर आया किन्तु प्रतीक्षा सूची में, हमें लगा यही प्रवेशार्हता पत्र है सो हम उस पत्र को लेकर सीधे अरेरा कॉलोनी, भोपाल पहुँच गये और प्राचार्य प्रो.आजाद मिश्र गुरुजी को पत्र दिखाकर धाराप्रवाह संस्कृत में बोले कि हमें शिक्षाशास्त्री में प्रवेश चाहिए, अन्यकार्यव्यावृत्ति एवं अनवधानवश उन्होंने उस पर लिख दिया कि प्रवेश दिया जाय, हम उस पत्र को लेकर बाहर आये तो द्वारका जी (कार्यालय कर्मचारी) ने हमें खूब सुनाया और कहा कि भैया पत्र में लिखा यही वाक्य दिल्ली से लिखाकर लाना है | मैं और सत्येश हम दोनों हतोत्साहित हो #दिल्ली चल दिए वहाँ मेरे ताऊ जी के लड़के Chandranshu Mishra Bjp भैया के रूम पर स्नान ध्यान कर पहली बार जनकपुरी, #नईदिल्ली में संस्थान मुख्यालय पहुँचे, तब नहीं जानते थे कि इस #संस्थानमुख्यालय के गेट से जीवन भर का घनिष्ठतम नाता जुड़ जाएगा, खैर कॉउंसिल कक्ष में पहुँचते ही एक महोदया ने मेरे नाम का कन्फर्मेशन लेने के उपरान्त पूछा - कहाँ जाना है भोपाल या #लखनऊ ? मैंने कहा भोपाल | वो बोलीं ठीक है इसका भोपाल लिखिए, मैं बोला मैडम काउंसलिंग कब होगी ? बोली हो तो गई काउंसलिंग, तुम्हें भोपाल जाना है | मैंने मन में सोचा भोपाल से जनरल डिब्बे धक्के खाता हुआ केवल यह सुनने के लिए आया था कि ठीक है आप भोपाल जाईये.... उस समय मैं केवल सोच ही सकता था | खैर हम दोनों को भोपाल परिसर मिला और विभागाध्यक्ष #प्रोपरमेश्वरनारायणशास्त्री सर के पास जाकर हमने प्रवेश लिया |
ईश्वरीय अनुग्रह से इस दौरान कई गुरुजनों एवं मित्रों के सम्पर्क में आने का अवसर प्राप्त हुआ, जिनका आशीष और शुभकामनाएं आज भी सतत रूप से कार्यरत हैं | भोपाल परिसर से 2005-06 में #शिक्षाशास्त्री (B.Ed) हो गई | और अब तक मैं भोपाल परिसर और संस्थान मुख्यालय देख चुका था |

मार्च 2009 में भोपाल परिसर से मेरा चयन "अनौपचारिक संस्कृत शिक्षक प्रशिक्षण वर्ग" के लिए हुआ जो कि #जयपुर परिसर में होने वाला था, अतः मई 2009 में पहली बार जयपुर परिसर जाने का अवसर मिला |


और फिर जयपुर से ऐसा नाता जुड़ा कि प्रशिक्षण के उपरान्त मैंने यहाँ से #MEd. किया तदुपरान्त श्री दिगम्बर जैन स्नातकोत्तर महाविद्यालय में शिक्षणकार्य किया | जयपुर में रहते हुए मुझे M.Ed. Ph.D. तथा UGC NET की सफलता मिली, मेरे जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने वाले कई गुरुजन और मित्रसम्पदा मुझे यहाँ प्राप्त हुए | जयपुर परिसर की याँदें बहुत विस्तृत विशाल और भावविभोर करने वाली हैं, अतः वो फिर कभी....

मई 2010 से जुलाई 2010 तक मैं संस्थान के तीन परिसरों में गया, मई 2010 में भोपाल परिसर के शोधछात्र के रूप में "अनुसन्धानप्रविधिप्रशिक्षण कार्यशाला हेतु राजीव गान्धी परिसर #शृंगेरीकर्नाटक गया |

वो जीवन के 21 दिन अविस्मरणीय थे, कई खट्टी मीठी यादें इससे जुड़ी हैं | फिर संविदाध्यापक (साहित्य) का साक्षात्कार देने जम्मू गया, साक्षात्कार दिया माँ #वैष्णवी (#वैष्णोदेवी) का साक्षात्कार किया |

 फिर संविदाध्यापक (साहित्य) का साक्षात्कार देने #गरली परिसर (हि.प्र.) गया, ज्वाला माता का दर्शन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ | पुनः जयपुर आकर दिगम्बर जैन कॉलेज Join किया, पढाता रहा, और 16 नवंबर 2010 को शाम के लगभग छः बजे मैं और मेरा मित्र डॉ अनूप पाण्डेय जयपुर की थड़ी के पास घूम रहे थे कि तभी जम्मू से साहित्य विभागाध्यक्ष डॉ. Satish Kapoor सर का फोन आया, अपना परिचय देने के उपरान्त उन्होंने कहा कि साक्षात्कार में आपका नाम प्रतीक्षासूची में था, अभी हमारे यहाँ एक पद रिक्त हुआ है क्या आप Join करना चाहेंगे ? मैंने कहा जी सर मैं अवश्य Join करना चाहूँगा किन्तु सर वेतन उतना ही मिलेगा ना, जितने के लिए मैंने साक्षात्कार दिया था ? वे बोले हाँ... तो आप कब आ रहे हैं ? मैंने कहा सर आप जब कहें, वे बोले कल पूजा एक्सप्रेस पकड़िये और परसो Join कर लीजिए "शुभस्य शीघ्रम्" मैंने कहा सर ठीक है, यह चमत्कार ही था कि एक घण्टे पहले मैं जयपुर परिसर में था और प्राचार्य कक्ष के समक्ष प्रो.सुदेश कुमार शर्मा सर ने कहा कि क्या तुम लोग जयपुर में M.Ed. करके जयपुर में ही जमे पड़े हो ... अरे भारत भर में फैल कर अपने गुरुजनों का नाम रौशन करो और तभी समीप में खड़ी प्रो.Bhagwati Sudesh मेडम बोली कि धनंजय चिन्ता नहीं करनी है, तुमको संस्थान में ही लगना है, और अन्ततः 18 नवंबर 2010 को मैंने जम्मू परिसर में संविदाध्यापक (साहित्य) के रूप Joining दे दी |

जम्मू परिसर में मेरा शैक्षणिक विकास जबरदस्त हुआ, कपूर सर की सन्निधि में सब ठीक चल रहा था और पता चला कि अब मुझे K.J. Somaiya परिसर #मुम्बई जाना पड़ेगा, 30 जुलाई की रात में जम्मू से मैंने झेलम एक्सप्रेस पकड़ी और 01 अगस्त की सुबह में #कल्याणस्टेशन उतरा, मित्रवर डॉ. Rakesh Jain ने पहले ही मार्ग तथा आने के साधनों के बारे में विस्तृत रूप से बता दिया था जैसे कल्याण में कितने नंबर प्लेटफार्म से लोकल पकड़नी है, स्लो पकड़नी है आदि... 01 अगस्त को मुम्बई परिसर में Join किया... 05 अगस्त को Friendship Day (Sunday) था... #अमिताभबच्चन जी के भौतिक दर्शन हुए किन्तु उससे पूर्व सिद्धिविनायक मुम्बादेवी आदि का दर्शनलाभ हुआ, 2001 में चैन्नै और रामेश्वरम में जो समुद्र देखा था मुम्बई कि स्थिति उससे भिन्न थी, मुम्बई परिसर का समय मेरे जीवन का अब तक स्वर्णिम समय रहा इसमें कोई संशय नहीं है, इस परिसर की कहानी भी बड़ी लम्बी है और कभी....
नई दिल्ली मुख्यालय में 30 जून 2015 को मेरी Ph.D. की अन्तर्वीक्षा होने वाली थी और पता चला कि मुझे अब श्री सदाशिव परिसर, पुरी (ओडिशा) में अपना शैक्षिक योगदान देना है, अन्तर्वीक्षा समाप्त होने के बाद मैं अपने ताऊजी के लड़के Rakesh भैया के रूम पर गया तो उन्होंने बताया कि मैंने दिल्ली से भुबनेश्वर का तेरा फ्लाइट का टिकट कर दिया है सुबह में पाँच बजे फ्लाइट है, वस्तुतः मैं फ्लाइट से जाने के मूड में नहीं था क्योंकि आज तक मैंने कभी हवाई यात्रा नहीं की थी किन्तु टिकट हो गया है तो जाना ही पडे़गा |
लगभग 07:30 तक भुबनेश्वर और 09:30 तक पुरी पहुँच गया, पुरी की भी अद्भुत और अविस्मरणीय याँदें है, पुरी रहते मैं सितम्बर 2015 में पहली बार लखनऊ परिसर गया "पण्डित प्रताप नारायण मिश्र युवा साहित्यकार सम्मान" लेने और मार्च 2019 में सपत्नीक गुरुवायूर परिसर (केरल) जाने का अवसर प्राप्त हुआ...... यही था मेरा संस्थान परिसरों की प्रथम यात्रा का वृत्तान्त ..... बहुत से संस्मरणों को लांघ लांघ कर आगे बढ गया हूँ.... अवसर मिलेगा तो उन्हें भी Share करूँगा ..... जय माता दी